भाषा हमारा बारूदी गोला है और हमारी एंटीना भी जो दूसरों से हमारी रक्षा करती है और उनके बारे में सूचित करती है। भाषा हमारे संवेदनों का विस्तार है।... हम भाषा में वैसे ही रहते हैं जैसे अपनी देह में।
- सार्त्र, ह्वाट इज लिटरेचर
अज्ञेय की सबसे निर्मम आलोचना किसी प्रगतिवादी लेखक ने नहीं, निर्मल वर्मा ने की है, अज्ञेय अधिकांश समय 'मैं' से उठकर 'अन्य' की ओर जाते हैं, 'अन्य' से मुड़कर 'मैं' की ओर। 'मैं' हमेशा सुसंस्कृत, सतर्क और शालीन है, 'अन्य' हमेशा उच्छाड़, गलत और हास्यापद। इस लड़ाई में अज्ञेय हमेशा जीत जाते हैं, बिना यह जाने कि जिस 'अन्य' का उन्होंने निर्माण किया है, वह उनके 'मैं' का ही अंधेरा पक्ष है। उनका प्रहार थोड़ा और तीखा होता है, 'जिस यातना और अकेलेपन की चर्चा अज्ञेय इतनी करते हैं, वह आगे बढ़कर हमें साझा करने के लिए उत्प्रेरित नहीं करती, आत्मा की टीस बनकर टिपटिपाती नहीं,झकझोरती नहीं, सिर्फ अज्ञेय की अर्जित, मूल्यवान, प्रेशस अनुभूति बनकर रह जाती है,प्रेशस अनुभवों कका संचय, जो सच लगते हैं, सच हैं भी, लेकिन अपनी सच्चाई हमारे भीतर मिलते नहीं, आधुनिकताबोध की पीड़ा।' उस जमाने में अज्ञेय पर निर्मल वर्मा का आक्रमण स्वाभाविक है। इनके कथन में कितनी सत्यता है, यह जानना मुश्किल नहीं है, क्योंकि अज्ञेय आधुनिक युग के ऐसे चंद लेखकों में थे, जिनके होने, दिखने और लिखने में फर्क न था।
अज्ञेय ने जब कविता की दुनिया में कदम बढ़ाए, एक नारा छा रहा था 'हर चीज राजनीतिक है।' अब राजनीति प्रमुख होती जा रही थी। आदमी की जिंदगी को सभी पहलू भाषा, साहित्य और सौंदर्यबोध भी राजनीति द्वारा निर्धरित होने लगे थे। बौद्धिक स्वतंत्रता संदेह से देखी जाने वाली चीज बन गई थी। किसी गंभीर राष्ट्रीय संकट या विषमता के समय ऐसा हो सकता है कि राजनीतिक कार्रवाई ही अधिक प्रधान हो जाए। यदि उपनिवेशवाद हो, थोपा युद्ध हो या राजनीतिक दमन की घटनाएँ हों, राजनीतिक आचरण को सबसे प्रासंगिक और श्रेष्ठ आचरण के रूप में देखा जाना संभव है। हम जानते हैं कि स्वाधीनता आंदोलनों के दिन में अज्ञेय की एक लंबी संघर्षपूर्ण जिंदगी थी। वे नौजवानी में काफी समय लाहौर और दिल्ली जेल में थे। कुछ समय नजरबंद थे। उनकी कविताओं में इन स्मृतियों की झलक नहीं मिलती, मानो एक समय की अतिशय सक्रियता दूसरे समय में अतिशय उदासीनता में तब्दील हो चुकी हो।
एक गहरे राजनीतिक समय में भी अज्ञेय की कविताएँ प्रत्यक्ष या छिपे रूप से राजनीतिक नहीं हैं, बल्कि इससे काफी दूर हैं। वे प्रगतिवाद के उभार के दिन थे, जब राजनीतिक सक्रियता एक प्रधान कसौटी बनी हुई थी। शिक्षा और रोज मर्रा की जिंदगी का तेजी से राजनीतिकरण हो रहा था। जीवन में जब 'पहली चीज राजनीति 'हो उठी और राजनीति सर्वग्रासी बन गई, साहित्यिकता का स्थान तभी से सिकुड़ना शुरू हुआ। आज साहित्य समाज के हशिए पर है। साहित्य ही नहीं सिद्धांत की भी दुर्दशा है। निश्चय ही साहित्य राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने वाली सच्चाई है, यह कहना भी उतना ही संदेहास्पद है, जितना यह कहना कि 'पहली चीज राजनीति'। इनकी जगह साहित्य और राजनीति के गतिशील संबंध को समझना ज्यादा जरूरी है, यह न हो सका। ध्यान में रखना में रखना होगा कि बौद्धिक और साहित्यिक गतिविधियों पर राजनीति की बढ़ती प्रधानता के जमाने में अज्ञेय ने राजनीतिक प्रचारवाद से दूरी रखकर शब्द में नई जान डालने का जोखिम उठाया था। उन्हें अपने लेखन के कारण बहुत आलोचना सहनी पड़ी, यहाँ तक की अमेरिका का पिट्ठू कहा गया। यह मान लिया गया कि वे निरे प्रयोगवादी और व्यक्तिवादी हैं। देखा जाना चाहिए कि अज्ञेय ऐसी चीजों से क्या कुछ भिन्न भी हैं और उनके 'मैं' का क्या कोई उजला पक्ष भी है।
एक समय नेहरू भारत को 'डिस्कवर' कर रहे थे और अज्ञेय आत्मजगत को। उन वर्षों के 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' और अज्ञेय के 'अन्वेषणों' में एक स्वाभाविक रिश्ता था। भारत को जानना, पश्चिम से इसके रिश्ते को पुनर्परिभाषित करना और नवोदित मध्यवर्गीय 'व्यक्ति' की भूमिका को पहचानना उस समय के प्रमुख बौद्धिक मुद्दे थे। भारत का नवोदित मध्यवर्ग सृष्टि के सुंदर विस्तर और आधुनिक जीवन की चुनौतियों के बीच अभी भी कठोर रूढ़ियों से बंधा हुआ था। इस मामले ने अज्ञेय को काफी हांट किया। उनमें निश्चय ही सामाजिक सोच का विधटन झलकता है, वे सोच के लए औजारों की तलाश करते हैं। छायावाद में सामाजिक सोच की परंपरा थी, भले वहाँ वैयक्तिकता हो। प्रगतिशील धाराएँ इस परंपरा को आगे बढ़ा रही थीं। अज्ञेय की विलक्षणता है, उनके यहाँ मनोजगत प्रधान है। उन्होंने कविता के केंद्र में स्पष्ट रूप से सामाजिक समस्याएँ रखने की जगह व्यक्ति के आंतरिक पहलुओं, आत्मान्वेषण को महत्व दिया। उन्हें आत्मजगत की लेबोरेटरी में जीवन का जो बोध हासिल हुआ, वह एक निहायत व्यक्तिबद्ध संसार का संकुचित बोध है या वह समाज और सभ्यता के केंद्रीय प्रश्न भी सामने लाता है, यह देखने की जरूरत है।
नेहरू का व्यक्तित्व रवींद्रनाथ को उनके अपने जमाने के संपूर्ण माहौल से अधिक सच्चा लगा था। वे आकर्षक थे, उन पर लोग फिदा होते थे। इसी तरह साहित्य की दुनिया में एक समय अज्ञेय का व्यक्तित्व आकर्षक था। उनको पसंद करनेवाले काफी लोग थे। आकर्षण उपलब्ध कराना आसान नहीं होता, खासकर तीव्र विरोधों और चुनौतियों के बीच। अज्ञेय एक ऊँचे कद-काठी के दर्शनीय कवि थे। इसके अलावा, पुरातत्वावशेषों के मध्य बचपन बितानेवाले जिज्ञासु, अपनी तबीयत के बादशाह, निजीपन की तीव्र भावनावाले व्यक्ति, मर्यादावान विद्रोही, हस्तशिल्पी, एकांत के अभ्यस्त, प्रवासी मानसिकता से भरे, परंपरा को तोड़ने नहीं बदलनेवाले, भारत के आदमी, दूसरों के दृष्टिकोण के प्रति संवेदनशील, अपने देखने को देखते रहनेवाले - अपने संबंध में ऐसी कई बात अज्ञेय ने 'लिखि कागद कोरे' में कही हैं। उन्होंने अपने बारे में लिखा, 'जेल में अपने सहकर्मियों के दिन-रात के साहचर्य से त्रस्त होकर उन्होंने स्वयं के लिए कालकोठरी की माँग की थी और महीनों उसमें रहते रहे।' उन्हें जनसमूह से अधिक पसंद था निर्जन पहाड़, और समुद्र। उनका जीवन घटनाओं से भरा था। वह आदतन आधुनिक थे।
अज्ञेय ने अपने जीवन का एक बड़ा कठिन, दुस्साहसी और समझौताहीन रास्ता चुना था। वे स्वनिर्मित थे। ये चीजें उनके व्यक्तित्व को आकर्षक बना देती थीं। हालाँकि यह वस्तुतः संभव हुआ था प्रचलित परंपराओं से टकरा कर व्यक्ति की विवेकशील अंतर्सत्ता को गरिमा देने और छायावाद युग के सामंतवाद-विरोधी संघर्ष को आगे बढ़ाने के कारण। क्या अज्ञेय का साहित्य व्यक्ति की आत्ममुक्ति का उद्घोष है? क्या उसे जीवन की जनतांत्रिक प्रक्रिया के एक अंग के रूप में देखा जा सकता है? अज्ञेय सदा भीड़ से अलग खड़े एक स्वयंरचित संसार में बसे दिखाई देते हैं। वे अतिपरिचित पुरानी पहचानों को तोड़ते हुए अपनी एक अलग आधुनिक अस्मिता निर्मित करते हैं। क्या इसका संबंध वैकल्पिक आधुनिकता की खोज से है?
'तारसप्तक' (1943) जितना विवादास्पद हो, कविता को नई आधुनिक जमीन पर खड़ा करने में उसकी एक बड़ी भूमिका है। इससे उन आधुनिक प्रवृत्तियों की सूचना मिल जाती है, जिनका आजादी के बाद विभिन्न दिशाओं में विकास हुआ। छायावाद का दौर बीत चुका था। साहित्य पर प्रगतिवाद का असर बढ़ रहा था। कवि मानस में 'इतिहास के औपनिवेशिक पाठ' और 'निजी साहित्यिक अनुभव का तनाव' भी उभर आया था। यही वजह है कि 'तारसप्तक' में विविध स्वरों के ऐसे कवि थे, जो राह पा न चुके थे, बल्कि 'राहों के अन्वेषी थे। वे हिटलर के फासीवाद से परिचित थे। दूसरे विश्व युद्ध में उसका सामना पूंजीवादी देश इंग्लैंड - अमेरिका और समाजवादी देश रूस मिलकर कर रहे थे। यह मिलाजुलापन 'तारसप्तक' में भी था। निश्चय ही 'तारसप्तक' के कवि आत्मपहचान, स्वतंत्रता और प्रगति इन सभी मुद्दों पर सोच रहे थे।
हम नहीं कह सकते कि 'तारसप्तक' से प्रयोगवाद की शुरुआत हुई। इसमें प्रयोग की भावना होते हुए भी कविता और समाज के बीच संबंध बना हुआ था। उस जमाने में हिंदी कविता जनतांत्रिक मूल्यबोध से इतनी ज्यादा संबद्ध थी - नरेंद्र शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन सरीखे कवि ही नहीं, निराला और पंत जैसे वरिष्ठ कवि भी कविता और समाज का इतना घनिष्ठ रिश्ता स्थापित कर चुके थे कि 'तारसप्तक' को इस उभार से बाहर निकालकर एक भिन्न दिशा में ले जाना संभव नहीं था। अज्ञेय 1938 से पश्चिमी असर में नए युग को संशय और अस्वीकार के युग के रूप में देखने लगे थे, 'यह युग संशय,अस्वीकार और कुंठा का है।' फिर भी वे अपनी कविता में रोमांटिसिज्म से बच पा रहे थे और न यथार्थवाद से। वे इस समय तक उतने व्यक्तिकेंद्रित न थे। तारसप्तक के कवियों में रामविलास शर्मा, भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचंद्र जैन स्पष्ट मार्क्सवादी पृष्ठभूमि वाले कवि थे। दो मराठी परिवार से आए कवि मुक्तिबोध और प्रभाकर माचवे मार्क्सवादी झुकावों के बावजूद अभी खुलकर सामने नहीं आए थे। गिरजा कुमार माथुर रोमांटिक पृष्ठभूमि वाले कवि थे। अज्ञेय रोमांटिसिज्म से भरे थे, पर वे बुद्धिवाद और पश्चिमी आधुनिकता के कुछ नए विचारों से प्रेरित थे। निश्चय ही वह युग ऐसा था, जब कोई विचार धाराएँ कहीं साथ-साथ थीं और कहीं आमने-सामने थीं। इसलिए 'तारसप्तक' को प्रगति की जमीन पर प्रयोग का प्रस्फुटन कहा जाना चाहिए।
इसमें संदेह नहीं कि उस समय विज्ञान की ही तरह साहित्य में प्रयोग की महत्वा बढ़ गई थी। लेखक प्रयोग-सचेतन होने लगे थे,लेकिन प्रयोग के लिए प्रयोग 'तारसप्तक' के बाद की घटना हैं और एक छिटपुट मामला है। मुझसे एक बार विज्ञान के एक प्रोफेसर ने पूछा था, आजकल साहित्य में क्या प्रयोग चल रहें हैं। उनकी यह जिज्ञासा स्वाभाविक थी, क्योंकि आधुनिक और वैज्ञानिक ज़माने में विकास से तालमेल रखने के लिए हर क्षेत्र में, साहित्य के क्षेत्र में भी प्रयोग जरूरी है। यदि छायावाद युग के बाद प्रयोग की जरूरत ज्यादा महसूस की जाने लगी। यह साहित्य का एक स्वाभाविक विकास था। प्रयोग के लिए प्रयोग का अर्थ है इसका परंपरा और प्रगति से संबंध विच्छेद। ऐसा बहुत कम हुआ और जितना हुआ, वह अनुकरण ज्यादा था। फिर भी प्रयोगवाद शब्द चला दिया गया, जबकि प्रयोग का रूझान बहुत सारे आधुनिक रूझानों में एक था।
इसमें संदेह नहीं कि अज्ञेय की बुनियादी काव्यात्मक मनोभूमि 'तारसप्तक' के समय बन चुकी थी। वह जीवन भर संवेदन और संप्रेषण की जिन समस्याओं से घिरे थे, उनसे हमारा परिचय 'तारसप्तक' में हो जाता हैं', समस्याएँ अनेक हैं - काव्य विषय की, सामाजिक उत्तरदायित्व की, संवेदना के पुनःसंस्कार की, आदि- उन सबका स्थान इसके पीछे है, क्योंकि कवि कर्म की मौलिक समस्या है साधारणीकरण और कम्यूनिकेशन (संप्रेषण) की समस्या। कवि को प्रयोगशीलता की ओर प्रेरित करनेवाली सबसे बड़ी शक्ति यही है। 'नई आधुनिक कविता में 'साधारणीकरण' की बात पीछे छूट गई, 'संप्रेषण' केंद्रीय समस्या बन गई। आधुनिक जीवन में संप्रेषण की समस्या ने प्रयोगशीलता की ओर प्रेरित किया, जो स्वाभाविक था। 20 साल बाद के 'पुनश्च' में अज्ञेय इसी मुद्दे को अधिक आधुनिक तल्खी से उपस्थित करते हैं, 'आज भी मेरे सामने जो समस्या है, ... वह अर्थवान शब्द की समस्या है। काव्य सबसे पहले शब्द है और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है।' अज्ञेय अपने वक्तव्य में भाषिक सर्जनात्मकता को केंद्रीयता देते हैं। कई आलोचकों के लिए अज्ञेय की कविता में शब्द ही धुरी है, पर अज्ञेय की कविताएँ ध्यान से देखी जाएँ, उनकें संवेदना के पुनःसंस्कार पर भी समान वजन है। निःसंदेह काव्य संवेदना और भाषा में दो-तरफा संबंध है, भले कुछ नए आधुनिक आग्रहों के चलते कविता को शब्दों से खेल कहा गया और एक खास दौर में शब्द इतिहास से अधिक महत्वपूर्ण हो गया।
अज्ञेय ने अपनी सृजनात्मक भाषा में सामाजिक-सांस्कृतिक रूढ़ियों से टकरा कर उदित हो रहे 'भारतीय व्यक्ति' का विलोप होता जा रहा है, जो एक बड़ी क्षति है। इससे वस्तुतः रूढ़ियों, कूपमंडूकता और बौद्धिक उपनिवेशन को चुनौती देने की ताकत कम होती जा रही है। अज्ञेय का आत्मान्वेषण एक अधूरे, यातनाग्रस्त और अहं-जर्जरित मध्यवर्गीय व्यक्ति द्वारा परिपूर्ण मानव-सत्ता की खोज है, जिसमें भटकन और उपलब्धियाँ दोनों संभव हैं। यह अलग बात है कि अज्ञेय के सृजनात्मक अन्वेषण को सिर्फ संदेह से देखा गया। उनकी चिंताएँ आम जनता और निम्न-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के जीवन संघर्ष और संवेदना से निश्चय ही भिन्न हैं। मुक्तिबोध ने एक महत्वपूर्ण बात कही है, 'नई कविता के भीतर कई स्वर हैं, कई शैलियाँ हैं, कई शिल्प हैं और कई भाव पद्धतियाँ हैं। 'नई कविता का आत्मसंघर्ष, अज्ञेय का भी अपना एक स्वर और शिल्प है। यह संभव है उनकी मानवता की कल्पना अमूर्त हो। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि अज्ञेय की कविता में लोकतंत्र की आत्मा नहीं है, उन्होंने किसी रूढ़ि को चुनौती नहीं दी, वे बेईमान बुद्धिजीवी थे या उन्होंने नुकसान के डर से अनुभव से पाया कोई सत्य नहीं कहा।
मुख्य बात है, जनतांत्रिक चेतना से गुजर रहे भारतीय समाज में अज्ञेय की साहित्यिक धारणाओं से असहमति हो सकती है, पर उन्हें रिंग से बाहर फेंकने के प्रयासों को उचित नहीं कहा जा सकता। मेरी समझ से हिंदी में बहसें साहित्यिक ऊँचाइयों तक पहुँचने के पहले ही जकड़नों का शिकार हो जाती रही हैं और संवाद की जगह एक सरलीकृत ध्रुवीकरण होता रहा है। यह लक्षित किया जा सकता है कि 'तारसप्तक' में अज्ञेय उस तरह के आधुनिकतावादी न थे, जिस तरह से उनके आधुनिकतावाद को देखा गया है और उन पर इसका टैग लगा दिया गया है। यह अध्ययन रोचक हो सकता है कि आधुनिकीकरण को लेकर अज्ञेय के मन में कैसी बेचैनी थी और वे वैकल्पिक आधुनिकता का अन्वेषण कितनी तरह से कर रहे थे।
यह अक्सर देखने को मिला है कि आधुनिकीकरण से गुजरता भारतीय भद्रलोक पश्चिम को अपने भौतिक जीवन की कसौटी बनाकर भी सामंती सामाजिक रूढ़ियों, रीतिवादी सौंदर्यदृष्टि और यौन वर्जनाओं का शिकार हो रहा है। अज्ञेय ने खास कर इन विडंबनाओं को हमेशा चुनौती के रूप में लिया। वह अपनी नवीनता के आग्रह की ठोस सामाजिक पृष्ठभूमि की ओर 'तारसप्तक' की भूमिका में संकेत दे देते हैं, 'आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति यौन वर्जनाओं का पुंज है। उसके जीवन का एक पक्ष है उसकी सामाजिक रूढ़ियों की लंबी परंपरा।' वह दूसरा पक्ष भी सामने लाते हैं, 'इस आंतरिक संघर्ष के ऊपर जैसे काठी कसकर बाह्य संघर्ष भी बैठा है, जो व्यक्ति और व्यक्ति का नहीं,व्यक्ति-समूह और व्यक्ति-समूह का, वर्गों और श्रेणियों का संघेर्ष है।' यह ज्यादा सोचना कहा जाएगा यदि इसी आधार पर अज्ञेय को वर्गचेतस कवि कह दिया जाए, पर उनकी रचनाओं से यह जाहिर है कि उनकी नजर किसान, सांप्रदायिक समस्याओं और युद्ध की तरफ भी गई है। अज्ञेय यथार्थवादी लेखक न थे, पर उन्हें एक बिल्कुल समाज-विमुख लेखक भी नहीं कहा जा सकता। उनके सृजनात्मक मानस को पश्चिम की कसौटी जिस तरह तंग करती थी, सामाजिक रूढ़ियाँ, वर्जनाएँ और कभी-कभी विषमता भी कचोटती थी। इसमें संदेह नहीं कि उनकी चिंता के केंद्र में मनुष्य था।
1947 में जब हिंदुस्तान के असंख्य लोग भारत या पाकिस्तान में शरणार्थी बन गए थे - कत्लेआम मचा था, कविता की दुनिया में सिर्फ अज्ञेय थे, जिनकी नजर इस वहशीपन की तरफ गई थी। उन्होंने उसी समय घृणा, वैर और हिंसा के उस रक्तरंजित खेल पर 'शरणार्थी' शीर्षक से 11 कविताएँ लिखी थीं। इसका अर्थ है वह 'तारसप्तक' के बावजूद अपने 'मैं' में कैद न थे। वह देख रहे थे कि सीमा के उधर और इधर हिंदू और मुसलमान मारे जा रहे हैं, 'आजकल का चलन है - सब जंतुओं का खाल पहने हैं।' इसी विषय पर उनकी कहानी है 'शरणदाता'। अज्ञेय की इन रचनाओं में सांप्रदायिक बर्बरता का जो विरोध है, उसकी ज्यादा चर्चा नहीं हुई। निश्चय ही उनकी आधुनिकता मानवीय संवेदना से भरी थी। वे वस्तुतः इस घटना से विचलित थे। उन्होंने धर्मांधता का विरोध किया। उनका लंबा जीवन लाहौर में बीता था, इसलिए विभाजन देखकर उनका मानसिक उद्वेलन स्वाभाविक था।
कहीं पर रौंदा हुआ अब भी तड़पती है
सनातन मानव-
खरा इंसान-
क्षण भर रूको तो उसको जगा लें
नहीं यह धर्म ये तो पैंतरे हैं उन दरिंदों के
रूढ़ि के नाखून पर मरजाद की मखमल चढ़ा कर,
जो विचारों पर झपट्टा मारते हैं
अज्ञेय की आधुनिकता पर शुरू में प्रगतिशील जीवनदृष्टि का दबाव था। यही वजह है, वे 'तारसप्तक' (1943)में कह सकेते थे, 'सत्य व्यक्तिबद्ध नहीं है, व्यापक है, और जितना ही व्यापक है काव्योत्कर्षकारी है। किंतु हम यह मान लेते हैं, तब हम 'व्याक्ति सत्य' और 'व्यापक सत्य' की दो पराकाष्ठाओं के बीच में उसके कई स्तरों की उद्भावना करते हैं और कवि इन स्तरों में से किसी पर भी हो सकता है।' अज्ञेय व्यक्ति स्वाधीनता और सामाजिक चेतना के बीच रिश्ता रखना चाहते थे।
छायावाद के बाद नए ढंग की जो कविताएँ लिखी जा रही थीं, वे 'व्यक्ति सत्य' और 'व्यापक सत्य' के बीच ही कहीं न कहीं अपना स्थान बनाती थीं। यह अमेरिका और रूस के बीच का शीतयुद्धीय खेल था, जिसके असर में कवियों को राजनीतिक तौर पर हड़पने की चेष्टाएँ हुईं। फिर भी कविता लिखना जिस तरह हमेशा सत्ता-समीकरणों से एक स्वतंत्र मामला रहा है, शायद ही उस युग का कोई महत्वपूर्ण कवि शिविरबद्ध होने के बावजूद हड़पा गया हो। कवि का हड़पा जाना कविता का समाधिस्थ होना है, उसकी मृत्यु है।
नई कविता के कवियों में अज्ञेय का काव्यात्मक विकास सबसे जटिल है। वे एक तरफ 'मैं' का कवि, आत्मान्वेषण का कवि हैं। दूसरी तरफ एक कविता में लिखते हैं, 'यह जो मिट्टी गोड़ता है / कोदई खाता है और गेहूँ खिलाता है/ उसकी मैं साधना हूँ/...जो भी जहाँ भी पिसता है / पर हारता नहीं, न मरता है / पीड़ित श्रमरत मानव / अविजित दुर्जेय मानव / कमकर, श्रमकर, शिल्पी, स्रष्टा / उसकी मैं कथा हूँ।' (मैं वहाँ हूँ, 1954, 'इंद्रधनुष रौंदे हुए ये,' 1957, में संकलित) यह 'तारसप्तक' और 'दूसरा सप्तक' के बाद की कविता है, जब प्रयोगवाद का शोर आरंभ हो चुका था। उपर्युक्त कविता में अज्ञेय आश्चर्यजनक रूप से पहली बार करते हैं, 'मैं सेतु हूँ', अन्यथा वे अपने लिए मुख्य रूप से 'द्वीप', 'हारिल', 'सोनमछली', 'बूंद', 'वन' जैसे प्रतीक चुनते हैं।
अज्ञेय की सामाजिक चिंता की कुछ उदाहरण उनके जीवन काल के आखिरी कविता संग्रह 'ऐसा कोई घर आपने देखा है' (1986) से हैं, 'वे फिर आएँगे / सुंदर होंगे / सुंदर यानों पर सवार दीखेंगे / दस हाथ उनकी संवेदन भरी उंगलियों से / कर सकते होंगे सौ-सौ करतब / पर जबड़ों से उनके टपक रहा होगा / जो सर्प-रक्त / वह जहाँ गिरेगा / मट्टी हो जाएँगी मानव कृतियाँ...' (वे तो फिर आएँगे)। इस संग्रह में अज्ञेय युद्ध को लेकर चिंतित हैं, 'हम अपने दुश्मनों को मारेंगे / यदि वे ही पहले हमें मार न गए।' (हम जरूर जीतेंगे)। इन कविताओं में स्पष्ट दिखता है कि अज्ञेय का स्वर पीड़ा में व्यंग्यात्मक हुआ है और उन्होंने अपने 'मैं', में मनुष्य को ही खोजना चाहा है। मनुष्यता ही उनकी ईहा है। कहा जा सकता है कि ऐसी कविताएँ उनके बंद 'मैं' की खिड़कियाँ हैं, जिनसे वे समाज के हवा-पानी का जायजा लेते हैं। इनका संबंध उनके मूल स्वर से नहीं है, क्योंकि यह कवि वस्तुतः अपनी इन कविताओं की वजह से नहीं पहचाना गया। यह भी संभव है कि राजनीतिक कारणों से उसे अधूरा देखा गया। अज्ञेय के साहित्यिक व्यवहार कइयों को चिढ़ाने वाले होते थे। उन्हें किनारा करने की एक वजह यह हो सकती है। यह भी संभव है कि अपने आखिरी संग्रह तक आते-आते वे अपने को कुछ अधिक खोलना चाहते हों, उनका मौन चुक गया हो। फिर भी उनका आत्मान्वेषण अर्थात अपने को तलाशना अंत तक जारी था। उपर्युक्त संग्रह में उनका आत्मान्वेषण अधिक मूर्त्त, पारिवारिक और पीड़ामय हो गया है, जैसे यह उनका एकाकी अंर्तनाद हो।
इस भीड़ में व्याकुल भाव से खोजता हूँ उन्हें
मेरे माता-पिता, मेरे परिवार जन
मेरे बच्चे
मेरे बच्चों की माँ
एक एक चेहरे में झांकता हूँ मैं
और देखता हूँ
केवल आँखों के कोटरों में भरा हुआ दुख
बेकली, तड़पन, छटपटाती खोज
खोजता हूँ अपनों को : पाता हूँ
अपने ही प्रतिरूप
जब तक नहीं पा लूँगा अपने से इतर अपने को
कैसे होगी मुझे अपनी भी पहचान?
क्या अज्ञेय को जीवन के अंतिम समय में यह अहसास हुआ कि उन्होंने इतना आत्मान्वेषण करके अंततः जो पाया, वह बेकली, तड़पन और छटपटाहट से भिन्न कुछ नहीं है?
स्पष्ट करना उचित होगा कि अज्ञेय ने अपनी श्रेष्ठ कविताएँ 1935 - 67 के बीच ही लिख ली थीं। निःसंदेह 'भग्नदूत' से 'कितनी नावों में कितनी बार' तक उनकी कविताओं में सामाजिक चिंता के स्पष्ट चिह्न जहाँ-तहाँ ही हैं। उनकी कविताओं में सामाजिक चिंता केंद्रीय स्वर नहीं है और वह सदा प्रत्यक्ष नहीं है। फिर भी 'व्यक्ति सत्य' और 'व्यापक सत्य' के बीच अनगिनत स्तरों पर अज्ञेय कहाँ और कैसे खड़े हैं, यह उद्घाटित करने में कोई सरलीकरण दिखाना उचित नहीं होगा। आम तौर पर उन पर सम्मोहन या गुस्से में ज्यादा लिखा गया है। यह भी कहना जरूरी है कि इसका अवसर वे खुद देते थे।
कविता का काम मनुष्य के सौंदर्यबोध और संवेदना का परिष्कार ही नहीं है, इनका विस्तार करना भी है। पहले विज्ञान और बाद में संस्कृति-उद्योगों का विकास यह अहसास कराने लगा कि अब जीवन में 'विशिष्ट' कुछ भी नहीं बचेगा। कविता सैकड़ों साल से समाज का एक विशिष्ट मामला रही है। उसका समाज में ऊँचा स्थान रहा है। नए आधुनिक युग में लगने लगा कि वैयक्तिक रचनात्मकता का धीरे-धीरे महत्व कम होता जा रहा है। शब्द संकट में है। इसलिए अज्ञेय ने ही नहीं, नई आधुनिक कविता के सभी रचनाकारों ने शब्द को लेकर चिंताएँ व्यक्त कीं,जो जीवन को लेकर चिंताएँ हैं। शब्द का महत्वपूर्ण हो उठने का अर्थ था परंपरा, अन्वेषण और परिवर्तन को भाषा के सृजनात्मक उपयोग में निहित मान लेना। अज्ञेय की दृष्टि में कवि शब्दों का प्रयोगकर्ता है। शब्द के बीच अंतराल और अर्थगर्भित मौन के उपयोग में उसकी सृजनात्मकता निहित है। इसलिए वह कहते हैं, 'कविता शब्द के बीच की नीरवतओं में होती है।' यह 'विटविन द लाइंस' का मुखर होना पाठक पर निर्भर करता है। ऐसे मौके पर पाठक की सृजनात्मक कल्पना का सक्रिय होना भी जरूरी होता है। हम अज्ञेय की कविता में सुस्पष्ट अर्थ से भिन्न अनुगुंजे, संकेत और अर्थ की धुंधली प्रतिच्छायाएँ पाते हैं। इसलिए अज्ञेय की कविताएँ सामान्य रीति से अलग हट कर पाठ की माँग करती हैं।
अज्ञेय ने 'तारसप्तक' में अपने वक्तव्य की इस धारणा का विस्तार कभी नहीं किया, 'अभिव्यक्ति में एक ग्राहक या पाठक या श्रोता मैं अनिवार्य मानता हूँ।' हालाँकि उन्होंने अपाने को तुरंत बंद करते हुए यह सवाल उठा दिया, 'यह ग्राहक या पाठक कवि के बाहर क्यों हो-क्यों न उसी के व्यक्तित्व का एक अंश दूसरे अंश के लिए लिखे?' पूछा जा सकता है कि फिर कवि अपनी रचनाएँ क्यों प्रकाशित कराता है या सुनाता है? कविता न शून्य में जन्म लेती है और न पाठक-श्रोता के बिना उसका भविष्य है। कहना यह चाहिए, पाठक अर्थ उत्पन्न करने वाला व्यक्ति, खुद भी एक सृजनकर्ता होता है - उसके बिना कवि की गति कहाँ?
दुनिया में पिछली लगभग तीन सदियों से स्वतंत्रता को लेकर बहुत ज्यादा चिंतन और संघर्ष हुआ है, क्योंकि स्वतंत्रता ही इन शताब्दियों में सबसे ज्यादा खतरे में रही है। अज्ञेय स्वतंत्रता की बात करते हैं, जो आज बाजार द्वारा स्वतंत्रता की दी जा रही परिभाषाओं से भिन्न है। अज्ञेय स्वतंत्रता को आधारभूत मूल्य मानते हैं। वे इसे व्यक्ति से जोड़ते हुए भी कहते हैं, 'दूसरे की स्वतंत्रता का आत्मचेतन दावा ही स्वतंत्रता का वास्तविक दावा है। इस 'दूसरे' के मुकुर में ही व्यक्ति अपनी अस्मिता को पहचान सकता है। 'मैं' के अधिकार का दावा तो एक जैविक प्रेरणा है, 'ममेतर' का दावा ही मनुष्यता की पहचान है।' (व्यक्ति और व्यवस्थाः व्यक्ति और समाज, 'स्रोत और सेतु' में संकलित)। मनुष्य की विवेकशील आत्मचेतना ही 'उसे आत्यंतिक रूप से पशु से अलग करती है।' (वही) आज का भोगपशु अपनी स्वतंत्रता के प्रति ही नहीं, 'दूसरे' के आईने में अपनी अस्मिता की खोज के प्रश्न पर भी बेहद कठमुल्ला है। अज्ञेय की स्वतंत्रता की अवधारणा व्यक्तिकेंद्रित होते हुए भी बुद्धिवाद और सामाजिक उत्तरदायित्व से विच्छिन्न नहीं है। वह बृहत्तर मनुष्यता से प्रेरित है और व्यक्तिवाद में बंद हो जानेवाली चीज नहीं है। पश्चिम के बुद्धिवाद और भारतीय परंपरा के 'आत्मबोध' को जोड़कर अज्ञेय ने उत्तरदायित्व से भरी स्वतंत्रता की जो धारणा दी, उसे कोरे व्यक्ति स्वातंत्र से जोड़कर देखने पर भ्रम पैदा होगा। अज्ञेय की लोकप्रिय कविता 'यह दीप अकेला'(1952)एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह भावना उनके पूरे काव्य में गूँजती है।
यह अद्वितीय; यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व-भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यदि व्यक्ति को 'दूसरे' के दर्पण में अपनी अस्मिता तलाशनी है तो वह अकेला क्यों होता है? इसके अलावा वह अद्वितीय कैसे है? व्यक्ति का अकेलापन पूंजीवादी व्यवस्था, आधुनिकीकरण और नगरीय जीवन की देन है। मनुष्य सामाजिक संगठनों में रहते हुए भी अकेलेपन का अनुभव करता है, यह एक यथार्थ है। अज्ञेय ने बार-बार यह दिखाना चाहा है कि अकेलेपन में भी आदमी कैसे जी सकता है। रूसी कवि युव्तेशेंकु ने साम्यवादी समाज में मनुष्य का अकेलापन देखा था, 'आइ लव माइ लोनलीनेस, बिकाज इट इज मोस्ट फेथफुल एमांग ऑल फेथफुलनेस।' अकेलापन वस्तुतः एक संकट है, पर यह अज्ञेय को उद्विग्न की जगह सम्मोहित ज्यादा करता है। यह सकून देता है। कवि इसका औचित्य स्थापित करता है, बल्कि इसकी कातर यंत्रणा उद्घाटित करने की जगह इसका महिमामंडन करता है। उसकी धारणा है, व्यक्ति के पास एक खुला आत्मबोध हो, तो वह अपने अकेलेपन में भी संपूर्ण सृष्टि का अनुभव कर सकता है। 'यह दीप अकेला' कविता में इस बुनियादी धारणा को उजागर करने वाले दृश्य हैं। एक अकेला अंकुर धरती को फाड़ निर्भय होकर सूरज को देख रहा है, इस अकेलेपन में भी जीवन की समिधा पूरे हठ के साथ सुलग रही है। लघुता में भी व्यक्ति अपने भीतर कितना अडिग विश्वास रख सकता है, यह बात कही गई है। व्यक्ति में अकेलेपन में भी मनुष्यता है। वह द्रवित होता है, प्रेम करता है, जागरूक है और दूसरे व्यक्तियों के साथ है। आधुनिकीकरण मनुष्य के ये गुण मिटा नहीं सकता, वह चाहे जितना अकेला कर दिया जाए।
मनुष्य की सबसे बड़ी खूबी है कि वह सृजनशील होता है। अज्ञेय ने सृजन और सृजन प्रक्रिया पर काफी लिखा है। उनकी एक कविता (1954) में मरू और खेत के बीच बातचीत है। मरू अपने स्वभाव के अनुसार सृजन-कार्य की व्यर्थता साबित करते हुए खेत से कहता है - लू बहेगी, पाला पड़ेगा। इसलिए बीज बोकर क्या होगा, वेदना मिलेगी। खेत कहता है जब उसकी छाती फोड़कर अंकुर फूटेगी और अपनी गर्व भरी आस्था से निहारेगा, उसके लिए वह क्षण अद्वितीय होगा - 'नव सृजन में जो अपने को होम कर देते हैं आनंदमग्न उनकी दृष्टि और होती है।' मनुष्य की सृजनात्मकता पर इतना जोर इसलिए दिया गया, ताकि वह सत्ता के नियंत्रण में चलनेवाला महज पर उत्पादनकर्ता यंत्र न बन जाए। उसके पास स्वाधीन सोच हो वह कल्पना कर सके और खुद अपने होथों मानव भविष्य रचने का उसका विश्वास बचा रहे। वह अकेलेपन में भी कुछ रच कर जी सके। सृजन का आनंद कुछ और ही चीज है। अज्ञेय ने खुद अपना पूरा जीवन सृजन के लिए समर्पित कर दिया था। एक समय ऐसे व्यक्ति थे। वे 'उत्पादक' नहीं 'सृजनकर्ता' थे।
यूरोप और एशिया का फर्क दिखाते हुए कहा गया है कि यूरोप वस्तुवादी होने की वजह से बहुकेंद्रिक है, जबकि एशिया आत्मपरक होने की वजह से केंद्रीयतावादी है- केंद्रभिसारी है। यह तर्क आगे बढ़कर भारत को एक ऐसा देश सावित करता है, जहाँ सदियों से निरंकुश केंद्रवाद रहा है। अज्ञेय को पश्चिम की तरु देखने में कोई सकुचाहट नहीं हैख् पर वह भारत को औपनिवेशिक दृष्टि की जगह अपनी आँखों से देखते हैं। कबीर ने कहा था - 'अनहद नाद',पर अज्ञेय ने एक विदेशी रहस्यदर्शी की उलटवाँसी की सहायता से भारत की सांस्कृतिक विशिष्टता का चित्र स्पष्ट किया है, 'एक ऐसा वृत्त जिसका केंद्र सर्वत्र है और जिसकी परिधि कहीं नहीं है। 'कुछ सच्चाइयाँ रहस्य में लिपटी हो सकती हैं, रहस्य को छाँट दीजिए। अज्ञेय अपने विचार-विश्लेषण और कविता में कई बार सहस्यमय शैली में जीवन की सच्चाइयाँ कहना चाहते हैं। उपर्युक्त उलटवांसी से उनका वास्तविक अभिप्राय है, 'हमारी परंपरा में गौरव की बात केवल राजनीतिक प्रामाण्यों की अनेक केंद्रीयता नहीं है,बल्कि उससे भी अधिक सांस्कृतिक अनेक केंद्रीयता है।' 'अनेक केंद्रीयता' के साथ तुरंत 'सार्वभौमता' का प्रश्न उठाते हैं, जिस तरह 'दीप' के साथ 'पंक्ति' की बात करते हैं।
आज भारत में केंद्र अपने कारणों से कमजोर होता जा रहा है, एक खास तरह से बहुत कुछ खंड-खंड हो रहा है। इसका अर्थ, सामाजिक विभाजन और अनेक केंद्रीयता एक नहीं हैं। अज्ञेय ने कहा था, 'केवल राजनीतिक लक्ष्यों अथवा आदर्शों की पूर्ति के लिए अनेक केंद्रीयता की मांग नहीं है।' (वही) वह केंद्रवाद का विरोध एक खास उद्देश्य से करते हैं, 'सत्ता के श्रृंखलित तर्क को निरंकुश एकाधिकार के समर्थन की युक्ति बना लिया जा सकता है।' (वही)। औपनिवेशिक दृष्टिकोण रखने के कारण यूरोप और अमेरिका अपने को 'केंद्र' तथा दुनिया के बाकी हिस्सों को 'परिधि' समझते आए हैं। भारत में भी केंद्र और परिधि की समस्याएँ हैं। अज्ञेय के निबंध संग्रहों के एक खंड का शीर्षक ही है 'केंद्र और परिधि'। इसका अर्थ है केंद्रवाद ने उन्हें बड़े पैमाने पर विचलित किया था। वे व्यक्ति और समाज के रिश्ते के स्तर पर भी इस सोच को ले जाते हैं। इसलिए उनके व्यक्ति स्वातंत्र्य का एक अर्थ है, व्यक्ति की हर किस्म के केंद्रवाद से मुक्ति - वह चाहे प्राचीन निरंकुश केंद्रवाद हो, औपनिवेशिक केंद्रवाद हो या जानतांत्रिक केंद्रवाद हो। देखा गया है कि जनतांत्रिक केंद्रवाद में भी अंततः केंद्रवाद रह जाता है, 'जनतांत्रिक' का धीरे-धीरे क्षय हो जाता है।
दुनिया में व्यक्ति को हर तरह की आजादी हासिल हो, कलाएँ पूर्णतः स्वतंत्र हों, ये और इसी तरह की अनगिनत काल्पनिक इच्छाएँ पूंजीवादी समाज में पैदा होती हैं। विडंबना यह है कि पूंजीवाद बड़े पैमाने पर व्यक्ति की स्वतंत्रता और सृजनशीलता को कुचलता भी है। वह केंद्र और परिधि की चिंतनीय स्थिति पैदा करता है। कहना न होगा कि एक बहुलतावादी समाज और विश्व-व्यवस्था में खंड-खंड को जोड़ने के सूत्र होने चाहिए, क्योंकि सामाजिक विभाजन मनुष्यता और जनतंत्र दोनों के लिए घातक है। क्या हम अज्ञेय को पूंजीवादी मानसिकता का कवि कह सकेंगे? क्या उन्होंने इसका थोड़ा भी अहसास किया था कि पूंजीवादी समाज में व्यक्ति-स्वातंत्र्य के नाम पर व्यक्तिवाद पनपता है, व्यक्ति कोई सच्ची मानवीय गरिमा हासिल नहीं करता, बल्कि खुदगर्जी और दिखावा में डूबा होता है? दरअसल ऐसे समाज में अज्ञेय एक शून्यता और अकेलेपन का अहसास करते हैं। उनको यह अहसास विलगाव की वजह से होता है। मनुष्य अपने विलगाव से उबरने के लिए पूंजीवाद का सामना कैसे करे, अज्ञेय कैसे करते हैं? उन्हें मौन की तरह ही 'सन्नाटा' विशेष रूप से पसंद रहा है। उन्होंने 'समाज' की जगह 'सन्नाटे' में ही अपने विलगाव से मुठभेड़ किया।
पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ
उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ
मैं सभी ओर से खुला हूँ
वन सा वन सा अपने में बंद हूँ
शब्द में मेरी समायी नहीं होगी
मैं सन्नाटे का छंद हूँ।
सन्नाटा शहर के आधुनिक शोरगूल से एक अलग जगह है। पूंजीवाद आदमी की जिंदगी में 'रिक्तता' या शून्यता पैदा करता है, उससे 'सन्नाटा' भिन्न है। यह कवि की रूचि अपनी जगह है, जहाँ से एक नई यात्रा शुरू हो सकती है। अज्ञेय 'मौन' या 'सन्नाटे' का उसी तरह उपयोग करते हैं, जिस तरह मुक्तिबोध 'अंधेरे' का करते हैं। अज्ञेय 'मौन' में 'अहं ब्रह्मास्मि' के तर्ज पर अपने उच्चतर 'मैं' को खोलते हैं, जबकि मुक्तिबोध के लिए 'अंधेरा' पूंजीवादी व्यवस्था को बेपर्द करने की जगह है। मौन अज्ञेय का एक दूसरा संसार है। यह चुप और वध्य होना नहीं है, बल्कि मन को विराट बनाना है। यह मौन है जो कवि को झराने के साथ बहाता है, पक्षी के साथ गाने की जगह देता है, वृक्ष की कोंपलों के साथ थरथराने का अवसर देता है, पत्तों के साथ उसे मृत्यु और पुनर्जन्म देता है। यह मौन एक अंतःसक्रिय और अंतर्वैयक्तिक जगह है। यह अपने में एक संपूर्ण भाषा है। यह 'बिटविन द लाइन्स' का मामला नहीं है। यह वह जगह है, जहाँ व्यक्ति अपने को पुनःउपलब्ध कराता है और भाव-प्रसार करता है। 'चक्रांत शीला' में इसका एक रूप इस प्रकार है -
वन के सन्नाटे के साथ मौन हूँ -
क्योंकि वही मुझे बताता है कि मै कौन हूँ
जोड़ता है मुझको विराट से
जो मौन, अपरिवर्त है, अपौरूषेय है
जो सबको समोता है।
वन के घने सन्नाटे में ही अज्ञेय का 'मैं' विराट से जुड़ पाता है, उसे अपनी व्यापक पहचान का अहसास होता है। आखिरकार वर्ल्ड कप के लिए क्रिकेट टुर्नामेंट के दौरान मैदान के चिल्लाते-चीखते विशाल दर्शक समूह के बीच कोई विराट से क्यों नहीं जुड़ता, किसी बड़े म्युजिक कैसेट में श्रोताओं के बीच विराट से क्यों नहीं जुड़ता, किसी सिटी माला में विराट का अनुभव क्यों नहीं होता, जहाँ अनगिनत अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड होते है? वन को वेतरतीब, निष्कलंक और शांति से भरा प्राकृतिक विराटता अज्ञेय को आमंत्रित करती है। क्योंकि आधुनिकीकरण के विभिन्न रूपों में विराटता के साथ तुच्छता दी। मानवीय पहचान छीन ली एवं व्यक्ति में अहंकार भर दिया। वन का सन्नाटा एक जगह है, एक रचनात्मक छंद है जहाँ व्यक्ति अहं से मुक्त होकर सृष्टि से एकात्मकता का अनुभव कर सकता है।
अज्ञेय 'मौन' में विलगाव से मुक्त होकर अपने को प्रकृति, पशु-पक्षी, काल के अविच्छिन्न प्रवाह, ऐतिहासिक कल्पना (इतिहास नहीं) और दुनिया की अनगिनत चीजों से जोड़ते हैं। वह पूंजीवाद से कन्फ्रंट नहीं करते, अपने मन में एक स्वयंरचित दुनिया बनाते हैं। इसमें परिवार, सामाजिक बंधन और राजनीति के लिए जगह नहीं है। यदि देश आया भी है तो आत्मधिक्कार के लिए, जैसे - 'तू एक बार तन कर खड़ा तो होता मेरे लुजलुज भारतवासी?' (केले का पेड़,1968)। अज्ञेय ने हर चीज को बाहर को प्रवासी-भाव से, 'तौल अपने पंख, सारस दूर के इस देश में तू है प्रवासी।' (साँझा के सारस, 1986)। 'सदानीरा' की भूमिका में अज्ञेय की एक महत्यपूर्ण आत्मस्वीकृति है, 'मैं परिस्थितिवश आरंभ से ही समाज से बाहर रहा और पुस्तकों का समाज ही मेरा समाज रहा।' उनकी वैयक्तिकता की पीड़ा है, 'मौन ही है गोद जिसमें / अनकही कुल व्यथा खोती है / मैं रह गया क्षितिज को अपलक देख ...।' अज्ञेय ने आधुनिक जिंदगी जी, पर पूंजीवादी समाज को स्वीकार कर लिया, यह नहीं कहा जा सकता। वह पूंजीवाद से टकराते नहीं तो उसके आगे आत्मसमर्पण भी नहीं करते।
अज्ञेय की कविताओं में उनकी स्वयंरचित दुनिया का महिमामंडन है। वह लगभग एक जैसी है, इसलिए मोनोटोनस भी। अज्ञेय अपनी स्वयंरचित दुनिया का विस्तार करते हुए अपनी स्वतंत्रता का भी विस्तार करते हैं। वे किसी दूसरी जगह स्वतंत्रता का अनुभव नहीं करते। वह शहर, सेक्योरिटी और अतीत को आलोचनात्मक नजरिए से देखते हैं। 'पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ' कविता संग्रह में यहीं मामला है।
गाड़ी ठहराने के लिए
जगह खोजते-खोजते
हम घूम आए शहर
बीमे की किस्तें चुकाते
बीत गई जिंदगी
अतीत से कट गए
चढ़ाकर फूल-चंदन
अब जिसमें जीते हैं
उससे मिले तो क्या मिले?
शहरीकरण ने मनुष्य की बेगानगी बढ़ाई है, भले यहाँ कई सुख हों। बहुत मुश्किल है शहर में आत्मीयता का कोई कोना मिलना। शहर वे आधुनिक जगह हैं, जहाँ बुद्धिवाद और पश्चिमी सभ्यता का असर व्यापक रूप से पड़ा है। यह भी एक वास्तविकता है कि आधुनिकता की छाया में यहाँ मानवता का बुनियादी रूप से व्यापक पतन घटित हुआ है। अज्ञेय ने साँप से पूछा था - ' तुम सभ्य तो हुए नहीं / नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया / एक बात पूछूँ -उत्तर दोगे? / फिर कैसे सीखा डसना / विष कहाँ पाया?/' यह व्यंग्य गहरी मानवीय पीड़ा से निकला था।
शहर में अब भी स्पेस है। 'हरी घास पर क्षण भर' (1949) में घास 'आधुनिक मानव-मन की भावना 'बन जाती है। यह एक वैकल्पिक आधुनिकता है, जिसमें नई सभ्यता की दरारें नहीं है। इस कविता में घास पर बैठना, आपस में धीरे-धीरे बातें करना, आधुनिक सभ्यता से बाहर निकल कर क्षण भर प्रकृति में तल्लीन होना, कुछ अनायास याद करना - चीड़ो के वन के साथ स्टीमर की भर्रायी सीटी को शिरीष के रेशम के साथ मस्जिद के गुंबद के पीछे सूर्य को, आंधी-पानी-लू के साथ संथाली झूमर को भी - यह सब सीमाहीन खुलेपन की चाह है। अज्ञेय का कहना है कि जीवन में सीमाहीन खुलेपन के बिना मानवीय बोध का विस्तार नहीं होगा, संवेदना का संस्कार नहीं होगा। उनके निकट स्वतंत्रता का अर्थ है मानवीय संवेदना का विस्तार। वह स्मृति चुनते हैं, पर 'याद कर सके अनायास : और न मानें / हम अतीत के शरणार्थी हैं।' यह कविता क्षण के साथ स्मृति को महत्व देती है, पर कवि को अतीत का शरणार्थी होना पसंद नहीं है। उसे शहर में रहते हुए भी शहर पसंद नहीं है। इसका अर्थ गाँव मे लौटना, प्रकृति में लौटना नहीं है। अज्ञेय का आक्रमण शहर के माध्यम से नागरिक समाज, बुद्धिवाद और आधुनिकता की दुर्दशाओं पर है।
नहीं सुने हम वह नगरी के नागरिकों से
जिनकी भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की
किंतु नहीं है करूणा
उठो, चलें प्रिय!
शहरीकरण, इतिहास और राष्ट्र-आधुनिकीकरण की ऐसी कई चीजों से एक घनघोर आधुनिक समय में उदासीनता दुनिया के पिछले तीन-चार सौ साल के विकास पर संदेह है। यह विकास एक घटना है, फिर भी कोई इस पर संदेह कर सकता है। इस पर संदेह पीछे लौटने की सूचना नहीं है, अधिक मानवीय संवेदना, अधिक स्वतंत्रता के लिए आवाज है।
एक आधुनिक कवि के रूप में अज्ञेय जितना अतीत को प्रश्नांकित करते हैं, वे आधुनिकता को भी संदेह से देखते हैं। मानवीय गरिमा के लिए आधुनिकता के भीतर चली आ रही औपनिवेशिक आधुनिकता और मनुष्य को नए बंधनों से जकड़ने वाली आधुनिक रूढ़ियाँ खतरनाक हैं। यहीं वजह है कि अज्ञेय ने परंपरा और आधुनिकता की टकराहट के साथ आधुनिकता और आधुनिकता की टकराहट को भी महत्व दिया। वह एक वैकल्पिक आधुनिकता की तलाश करते हैं। इसके लिए वह इतिहास को भी त्यागने के लिए तैयार दिखते हैं, क्योंकि यह मनुष्य को सीमित करता है और कभी-कभी हिंसक बना देता है। अज्ञेय ने बड़ी उग्रता से लिखा है, 'एक विशेष नरक था/ पर ये इसे अपना इतिहासबोध कहते हैं!' इसी नरक से धर्मोन्माद का जन्म हुआ, जिसका अज्ञेय ने विरोध किया।
इन सबका यह अर्थ नहीं है कि अज्ञेय शहरों में नहीं रहे, इतिहास में कुछ नहीं है, राष्ट्र एक गैर-जरूरी जगह है या आधुनिकता अछूत हो गई। उनकी चिंता का विषय है इन सभी का अमानवीय जगह हो उठना - मनुष्य की स्वतंत्रता के विस्तार में इन सभी का साधक की बाधक बनते जाना। वे महसूस कर रहे थे कि नए जमाने की सभ्यता ने शहर, इतिहास, राष्ट्र और आधुनिकता को बदसूरत बना दिया है, ऐसा उसने सृजनात्मक कल्पना के अवसर लगातार छीन कर किया है। मनुष्य की स्वतंत्रता की एक कसौटी यह है, वह 'गोचर अनुभवों की भूमि' पर खुद कल्पना कर पा रहा है या नहीं।
खासकर 21वीं सदी में मनुष्य की निजी कल्पनाशीलता का बड़े पैमाने पर ह्रास हुआ है, इसी तरह स्वतंत्रता का भी। मनुष्य उपभोग के स्तर पर आधुनिक है - वह शहर, इतिहास और राष्ट्र का खूब उपभोग कर रहा है, पर उसकी संवेदना आधुनिक संस्कारों से कोसों दूर है। उपभोग के स्तर पर आधुनिक होते जा रहे मनुष्य की संवेदना में न उदारता है और न गतिशीलता।
क्या मनुष्य की स्मृति उसकी यात्रा में रूकावट है? अज्ञेय लिखते हैं, 'काल पर विजय यदि संभव है तो स्मरण के द्वारा नहीं है, आकांक्षा के द्वारा भी नहीं है, वह अत्यंत वर्तमान में एक आत्मचेतन अस्ति के द्वारा ही संभव है।' (काल का डमरू नाद)। मनुष्य अपने अस्तित्व को भूलकर अतीत में ज्यादा जीता है या भविष्य में। वह वर्तमान मो हेय समझता है। अज्ञेय के अनुसार हमारी काल चेतना 'अनिवार्यता स्मरण पर अथवा प्रतीक्षा पर आधारित है।' (वही)। बीते हुए का स्मरण और अनागत की प्रतीक्षा। वर्तमान वह क्षण है,'जिसकी न स्मृति है, न प्रतीक्षा अथवा कामना। कोई ऐसा क्षण पाया जा सके - ऐसे क्षण को कोई पा सके, आत्मचेतन होकर स्मृति और आकांक्षा से परे जी सके, तो वह ऐसा व्यक्ति हो जाएगा, जिसकी छाया नहीं होती।' (वही)। क्या व्यक्ति ऐसा हो सकता है, इतिहास से न कुछ ले और न उसके लिए कोई चिह्न छोड़े? खुद जिस भाषा में अज्ञेय यह सब लिख रहे हैं, वह उनका या किसी एक क्षण का अन्वेषण नहीं है। इलियट ने लिखा था, 'टु बि कांशस इज नाट टु बी इन टाइम'। आधुनिकता का शुरू में अर्थ था 'वर्तमानता', बाद में इस का अर्थ वस्तुओं और मूल्यों से जुड़ गया। आधुनिकता ने ही इतिहास दिया। अब इसी इतिहास से ऐसे हिंसक प्रेत जाग उठे और किसी-किसी देश में जैसा कि भारत में धर्म चेतना का मन पर बोझ इतना बढ़ता गया कि अतीत आततायी हो उठा। इसलिए एक नई आधुनिकता आई, जिसने इस पर जोर दिया कि मनुष्य क्षण को महत्व दे। वज हस रास्ते से अपने गोचर अनुभव और अस्तित्व के अनुभव को महत्व दे, क्योंकि इसके बिना उसकी स्वतंत्रता अधूरी है।
अज्ञेय द्वारा क्षण को महत्व देने को क्षणवाद कहा गया है। वे क्षण को महत्व देते है अतीत की सीमारेखाओं और भविष्यवाद से मुक्त होकर क्षण में प्रवाहमान संपूर्णता से नाता जोड़ने एवं व्यक्ति की स्वाधीनता जैसा कि आज का उपभोक्ता समाज हो गया है। अज्ञेय की इन पंक्तियों से उनके 'क्षण' का अर्थ स्पष्ट हो सकता है, 'एक क्षणः क्षण में प्रवाहमान व्याप्त संपूर्णता /.. एक क्षण होने का, अस्तित्व का अजस्र अद्वितीय क्षण।' मानवीय अस्तित्व की संपूर्णता अतीत की स्मृति में जीने में नहीं है।
स्मृति भी है यातना
या कि हो सकती है -
पर जिनके पास रह गई उनको
सिवा हाँकने, दूहने
या कि बलि देकर खाने के
और कुछ नहीं आता
यह सही है कि स्मृति के दुरुपयोग हुए हैं। स्मृति अमानवीय सत्ता का उत्सव बनी है। यह भी उतना ही सही है कि यदि स्मृति न हो, न देश होगा, न परिवार, न प्रेम, न संस्कृति और न भाषा। स्मृति नहीं होगी तो चारों तरफ सिर्फ उपनिवेश होंगे। स्मृति का बोझ हो उठना एक चीज है और इसका जीवन का जीवंत अंग होना एक बिल्कुल दूसरी चीज। खासकर भारत न स्मृतियों के बोझ से लद कर और न स्मृतियों के बिना अस्तित्वमान रह पाएगा। अतीत में सकारात्मक स्मृतियाँ हैं और नकारात्मक स्मृतियाँ भी। सवाल है, हम क्या याद कर रहे हैं। आधुनिक युग में छायावाद तक स्मृतियों के बिना कोई राष्ट्रीय आत्मछवि मुश्किल थी, जबकि आजाद भारत में स्मृतियाँ जकड़न बनने लगीं।
हम 60 और 70 के दशक की ओर दृष्टि ले जाएँ, जब अज्ञेय का श्रेष्ठ लेखन सामने आ रहा था, आधुनिकता जो कुछ प्रचलित था और बंधंन बन रहा था, उससे विद्रोह के रूप में सामने आई थी। इतिहास ही नहीं समाज भी असुविधाजनक जगह होता जा रहा था। 'व्यक्ति' विपद में था। मनुष्य में वैयक्तिकता का बचना जरूरी था। आधुनिक लेखकों को औद्योगिक भौतिकवाद, संकीर्ण राजनीति और कठोर धार्मिक नैतिकता उद्विग्न करती थी। वे परंपरा और आधुनिकीकरण दोनों पर संदेह कर रहे थे। उन्होंने बाहर के भौतिक जगत से निराश होकर आत्मजगत में आश्रय लिया था। यह आत्मजगत ही सब कुछ था। कहीं भी जाकर इसी में लौटना था, बसने की एक जगह तब बची हुई थी।
कांट ने आत्मजगत-केंद्रिकता की धारणा को एक बिंब के माध्यम से स्पष्ट किया है। एक उड़ता पक्षी जब उसी हवा को अवरोधक के रूप में देखता है, जिसके जरिए वह उड़ रहा है तो उसके मन में यह विचार आ सकता है कि वह हवा रहित शून्य में शायद बेहतर उड़ान भर सकता है।
मनुष्य के लिए देश और काल अर्थ रखते हैं। वह कवि जो आत्मजगत केंद्रित हैं, वह भी बाह्य संसार की वस्तुओं के बिना न कोई अनुभव कर सकता है, न संवाद कर सकता है और न रचना कर सकता है। अज्ञेय ने कोई देश नहीं चुना। वह काल को भी टाल गए। वह दरअसल अपने अनुभव के देश-काल में थे। इसी जगह वह अपने को एक रहस्यमय तरीके से संपूर्ण सृष्टि और मानवजगत से जोड़त थे, क्योंकि वे आत्मबोध में ही मानवीय अखंडता का अनुभव करना चाहते थे। आधुनिकता अपनी चमक-दमक के साथ जैसे-जैसे संकीर्णताएँ पैदा करती जा रही थी,मानवता का स्पेस जितना सिकुड़ता जा रहा था, उतनी ही तल्खी से अज्ञेय संपूर्ण चराचर सृष्टि को अपने घर के आँगन के रूप में देखने लगे थे।
आँगन में द्वार हैं, पर वे खुले हुए हैं। द्वार पर कोई द्वारपाल नहीं है, सत्ता की धौंस नहीं है। कोई आगे नहीं है, कोई पीछे नहीं है। कोई कम महत्वपूर्ण कोई अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। सृष्टि के ओर-छोर में सभी एक दूसरे से घुले-मिले हैं और अखंड हैं। इस सीमाहीन खुलेपन के भीतर भवन का जो देवता है, वह खुद कभी पूजित होना नहीं चाहता, बल्कि वह समर्पण से भरा है और द्वार के रक्षक की पायलगी कर रहा है। यह भीतर का देवता व्यक्ति का निरहंकारी 'मैं' है, आत्मबोध है। द्वार का प्रतिहारी व्यक्ति की बुद्धि है। 'आँगन के पार द्वार' (1961) एक प्रतीकात्मक कविता है, जो अज्ञेय के जीवनबोध की विशिष्टिता करे व्यक्त करता है। उनके 'मैं' का विराट भवन उस आँगन में था भी और बुद्धि के आलोक में खो भी गया था।
आँगन के पार
द्वार खुले
द्वार के पार आँगन।
भवन ओर-छोर
सभी मिले -
आधुनिकतावादी लेखकों ने बाह्यजगत में असहजता का अनुभव करके अपने जीवन को आत्मकेंद्रित किया, क्योंकि वे सोचते थे कि केवल तभी वे स्वतंत्रता का अनुभव कर सकते हैं। उन्होंने ऐसे भाववादी रूपाकारों का अन्वेषण किया, जिनका सामाजिक जीवन से लेना-देना न था। ये रूपकार निश्चय ही कुछ ठोस मानवीय अंतःकरण का निरंतर संहार किया जा रहा हो और सामुदायिक झुंडों में शामिल आदमी में 'व्यक्ति' या व्यक्ति-विवेक का कोई अता-पता न हो, शहरीकरण, इतिहास और राष्ट्र से विद्रोह से विद्रोह करने वाली वैयक्तिक आधुनिकता मानवीय मूल्य-चिंता से भरी-पूरी दिख सकती है। यह नई आधुनिकता अमूर्तन और पारदर्शीकरण पर टिकी थी। यह सही है कि कला के भीतर से एक आत्मसंपूर्ण आधुनिक दुनिया की कल्पना रहस्यमयी और यूटोपिया बनाती है, जबकि उत्तर-आधुनिकतावादी स्वप्नहीन होता है।
रहस्यवाद काल से कालातीत में छलाँग है, यह इतिहास से बाहर निकलना है। अज्ञेय के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे पिछले युगों के रहस्यवादियों से भिन्न हैं। वह खुद कहते हैं, 'मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है।' मुख्य सवाल है, एक तरु विज्ञान से प्रभावित होकर 'सत्यान्वेषण' के लिए प्रयोग पर जोर देने और दूसरी तरफ विज्ञान के युग में ही रहस्य की अनुभूति हर अंतर्विरोध को कैसे समझा जाए। दूसरी बात है, उनकी कविता में रहस्यवाद नहीं है रहस्यमयता है। अज्ञेय की कविता में रहस्य का जोन वहाँ बनता है, जहाँ आत्मान्वेषण के एक खास बिंदु पर वह किसी असीम भौतिक-मानवीय सत्ता से संबंध जोड़ना चाहते हैं और आत्मान्वेषण एक आत्म-अभिभूत दशा में ढल जाता है। अज्ञेय की रहस्यमयता एक खास किस्म की साहित्यिक संरचना है। इसे मानव-रहस्य कहा जा सकता है, जिसका रिश्ता एक भिन्न नैतिकता से है और अमूर्त्तन से है। उनकी रहस्यमयता के पीछे विश्व की कुछ वे आधुनिक कला-प्रवृत्तियाँ काम कर रही थीं, जिनकी टकराहट अति-भौतिकवादी सभ्यता और इसकी पूंजीवादी प्रणाली से थी। इसलिए यदि अज्ञेय की कविताओं में विराट, अपौरुषेय, भीतर का देवता, आत्मा, स्वयंसिद्ध, मौन जैसे भारतीय जीवन के आध्यात्मिक शब्द आए हों, यह आश्चर्यचकित होने की चीज नहीं है।
नेहरू ने 1959 में आजाद मेमोरियल लेक्चर देते हुए एक सवाल रखा था, 'क्या हमलोग विज्ञान और टेक्नोलॉजी की प्रगति के साथ मन-आत्मा की उन्नति भी करते रह सकते हैं? मेरा मुख्य सरोकार सिर्फ भौतिक प्रगति से नहीं है, बल्कि लोगों के आंतरिक गुणों और उनकी गहराई से भी है। औद्यगिक प्रक्रिया के जरिए सत्ता अर्जित करके लोग क्या संपत्ति और सुख की आकांक्षाओं के बीच अपने-आपको खोते नहीं जा रहे हैं?' नेहरू खुद आधुनिकरण के एक बहुत बड़े समर्थक थे। यह भारत की खोज का समय नहीं था, भारत के नव औपनिवेशिक आत्मविसर्जन का दौर था। नेहरू आधुनिकरण को पश्चिमीकरण से अलग नहीं कर पा रहे थे। अज्ञेय की कविता नेहरू युग की 'क्रिटीक' है, हालाँकि अज्ञेय नेहरू से प्रभावित थे। प्रेमचंद जिस तरह गांधी से प्रभावित थे, अज्ञेय नेहरू से उस तरह प्रभावित थे। उन्होंने नेहरू के अभिनंदन ग्रंथ संपादन का काम भी किया था। वस्तुतः उस युग में मनुष्य की आधुनिक जिंदगी से जो खोता जा रहा था, उसे वे खोज रहे थे। वे नेहरू को उपर्युक्त चिंता में साझा करते हुए कुछ पुनःआविष्कार कर रहे थे। वे चाहते थे, संकट से घिरे मानव अस्तित्व को एक नए रास्ते से अर्थ मिले। उनका रास्ता यथार्थवादियों के रास्ते से अलग था। वे सही या गलत थे, ऐसा कोई सरलीकृत निष्कर्ष देने की जगह यह देखना ज्यादा जरूरी है कि वे एक समय कला, साहित्यिकता, स्वातंत्र्य, मानवीय संवेदना, उच्चतर मानवीय मूल्य जैसी चीजों के पक्ष में इतनी दृढ़ता से क्यों खड़े थे।
60 और 70 के दशक के पूंजीवादी समाज में मध्यवर्गीय जीवन रोमांटिसिज्म, यथार्थवाद और अस्तित्ववाद के बीच कसमसा रहा था। वह कभी उदात्तता, कभी संधर्ष और कभी निस्सहायता के तट पर होता था। वह एक द्वैध और अंतर्विभाजन के लिए अभिशप्त था। नई कविता मुख्यतः ऐसे ही मध्यवर्गीय जीवन के आत्ममंथन, संघर्ष और सौंदर्य को लेकर सामने आ रही थी। उस जमाने में परिवर्तन की राजनीति तेज थी, जन आन्दोलन उभर रहे थे। इन स्थितियों के बीच अज्ञेय की चिंता यह थी कि सामाजिक जीवन में व्यक्ति का सही स्थान क्या हो, बिखर रहे मानव जीवन में लद कैसे पैदा हो, व्यक्ति के बाहरी और आंतरिक संसार में कैसे एक सामंजस्य हो, व्यक्ति की स्वतंत्रता पर परंपरा और आधुनिक सभ्यता के बुर्ज से हो रहा आक्रमण कैसे रोका जाए, व्यक्ति की जिंदगी सभी तरह के अमानवीय हस्तक्षेपों से कैसे मुक्त हो, उसकी मानवीय अस्मिता पर कोई कृत्रिम सामूहिक पहचान कैसे न लदे। समाज को बदलने की जगह व्यक्ति स्वाधीनता की ऐसी चाहतें पूंजीवादी व्यवस्ता से टकराहट थीं या उसका अंग थीं?
प्राचीन काल से ही अति भौतिकवादी झुकावों के कारण जन्मा अहंकार मिथकीय चिंता का विषय रहा है। रावण, हिरण्यकश्यप, कंस प्राचीन अहं के प्रतीक थे। आधुनिक युग के अति भौतिकवाद और ज्ञान की सता ने व्यक्ति-व्यक्ति में अहंकार पैदा किया है। यह कइ बार 'ईगो' के रूप में आता है। अज्ञेय के लिए आधुनिक युग का अहंकार चिंता का विषय रहा है। अज्ञेय अपने व्यवहारिक जीवन में स्वयं कुछ स्वाभिमानी या अहंवादी रहे हों, पर उनके साहित्य में अहंवाद नहीं है। उनकी कविता में ऐसे सवाल होते हैं - 'अहं। अंतर्गुहावासी! स्वरति! क्या मैं चीन्हता कोई न दूजी राह / जानता क्या नहीं निज में बद्ध होकर है नहीं निर्वाह?' उनमें एक आधुनिक मिजाज का अहं स्वाभाविक वजह से है, पर यह बार-बार उच्चतर मानवीय जीवन बोध में विसर्जित हो जाता है। यह उनके लिए अन्य वस्तुओं की तरह ही महज एक वस्तु है, जो आत्मबोध में अंततः खो जाती है। अज्ञेय कई बार 'अपना नहीं होने' का बोध करते हैं। यह कहना सही नहीं है कि 'अहं' उनका सुरक्षात्मक कवच है। उनकी ' निरस्त्र' कविता में है - 'यों मैं अपने रहस्य के साथ रह गया सन्नाटे से घिरा/ अकेला, अप्रस्तुत /अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र / निष्कवच/ बध्य।' अज्ञेय का अहं निरस्त्र ही नहीं निष्कवच भी है। वह मानवीय चेतना की क्रियाओं पर नियंत्रण नहीं रखता, बल्कि उनसे मंजता है, संस्कार प्राप्त करता है और अपने को लुटा देता है। अज्ञेय में एक बड़ा ही अर्थपूर्ण द्वैत है - 'मैं हूँ और दे दिया गया हूँ।' उनका अहं मानवीय चेतना की अनगिनत लहरों से मंजे मोती की तरह है, जो एक तरफ वैयक्तिकता का प्रतीक है और दूसरी तरफ विश्वप्रतिम है। यह भले सही हो कि अज्ञेय का 'मैं' आत्म-आलोचनात्मक नहीं है, आत्मश्लाघात्मक है, पर उनका 'मैं' अहं का प्रमिरूप नहीं है। अज्ञेय अपने 'मैं' के जरिए किसी स्वेच्छाचारिता की तरफ बढ़ना नहीं चाहते, बल्कि, मानवीय जीवन की कुछ उच्चतर चीजों की रक्षा करना चाहते हैं।
उनमें अपने को अन्य से 'मैं' को 'ममेतर'से जोडने की बेचैनी है यह कहना सही नहीं है कि अज्ञेय का 'अन्य'हमेशा उच्छाड़,गलत और हास्यास्पद है या उनके 'मैं' का अंधेरा पक्ष है वह जिस 'अन्य' या 'ममेतर' से जुड़ना चाहते हैं, उपर्युक्त के ठीक विपरीत एक विराट चराचर सृष्टि है, उसमें समाज के लोग भी हैं।
ओ निस्संग ममेतर
ओ अभिन्न प्यार,
ओ धनी,
आज फिर एक बार
तुमको बुलाता हूँ -
और जो मैं हूँ, जो जाना-पहचाना
जिया-अपनाया है, मेरा है,
धन है, संचय है, उसकी एक-एक कली को
न्यौछावर लुटाता हूँ।
क्या ऐसा कवि पूंजीवादी या स्वेच्छाचारी हो सकता है? अज्ञेय जब मरे, उनके पास अपना कुछ नहीं था। लंबे समय तक उन्हें ठीक से याद करने वाला कोई साहित्य प्रेमी नहीं था। बौद्धिक स्वातंत्र्य का प्रवक्ता होने के कारण उनके पीछे कोई राजनीतिक दल न था। यह भारत में आधुनिकता की दयनीय स्थिति का द्योतक है, लेखक दोनों तरफ से कुचला जाता है।
क्या अज्ञेय को प्रेम का कवि कहा जा सकता है? उनके जीवन का एक प्रेम वह है, जिसका कथत्मक प्रतिरूप 'शेखर एक जीवनी' की शशि है। ऐसा प्रेम भी है, जिसकी परिणति शादी में हुई। उनके प्रेम भरे जीवन में तनाव ओर उदासी के दौर भी आए। उनकी कविताओं में उनके प्रेम का बौद्धिक और उदात्त रूप है जो स्त्री से प्रेम से आगे बढ़कर प्रकृति और मनुष्य से प्रेम तक चला गया है। उनका प्रेम एक अन्वेषण है और अस्तित्व का बोध भी। उनकी 'हरी घास पर क्षण भर' कविता में प्रेम इसी रुप में है, 'बना रहे विस्तार हमारा बोध मुक्ति का।' अज्ञेय का प्रेम मानव मन को विस्तार और मुक्ति का अहसास देनेवाला है। उनका प्रेम सीमा-हीन खुलेपन का अनुभव है। इसकी टकराहट, रूढ़ियाँ, संकीर्णताओं और बर्जनाओं से इसमें एक गंभीरता है। अज्ञेय को समाज से काफी आघात और दर्द मिला था। वह अकेलापन कुछ ज्यादा महसूस करते थे, 'आज प्राण मेरे प्यासे हैं आज थका हिम हारिल मेरा / आज अकेले ही उसको इस अंधियारी संध्या ने घेरा' (1936)। एक अभिनव रोमांटिसिज्म उनके अंतःस्थल में शुरू से था, जो वस्तुतः कभी नहीं चुका।
अज्ञेय का सत्यान्वेषण चराचर विश्व में प्रेम का ही अन्वेषण है। उनकी बुनियादी समझ यह है, 'मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।' (1937) वह साधारण तिनके को भी पावन मानते हैं। उनमें अकेले का साहस है, 'उड़ चल हारिल, लिए हाथ में यही अकेला ओछा तिनका /... काँप न यद्यपि दसों दिशा में तुझे शून्य नभ घेर रहा है।' (1938) यह ओछा तिनका आगे पावन तिनका हो जाता है। सृष्टि की साधारण से साधारण चीज के प्रति, जिससे निर्माण हो सकता है, पावनता का बोध और जोखिम जी अकेलेपन की कठिन स्थिति में व्यक्ति का आत्मसंबल होता है। दसों दिशाओं से शून्य नभ का घेरना व्यक्ति को मिलने वाली कठोर औपनिवेशिक-सामंती चुनौतियाँ हैं। यह अनुभूति पर परंपरा और औपनिवेशिक आधुनिकता का सम्मिलित कसाघात है। हारिल एक समय कवि का बड़ा प्रिय रूपक था, यह प्रेम से भरे सृजनशील व्यक्ति की आकांक्षाओं का रूपक था। अज्ञेय के काव्य मानस की बुनियाद में यदि प्रेम की अनुभूति थी, कोई वजह नहीं है कि 'मैं' और 'ममेतर' के अंतर्सबंध में प्रेम ही मूल प्रेरणा न हो।
यह उल्लेखनीय है कि अज्ञेय बाद में नभ में उड़ते 'हारिल' को छोड़कर सागर की 'मछली' को अपना प्रिय प्रतीक बना लेते हैं। हारिल के हाथ में घर बनाने के लिए साधारण तिनका था, उसमें रोमांटिक साहस था। 'टेर रहा सागर' में मछली अकेलेपन की किसी गहरी यातना में हैं, 'अर्थ हमारा / जितना है, सागर में नहीं / हमारी मछली में है / सभी दिशा से सागर जिसको घेर रहा है।' (1959)। यह अकेलापन का रोमांटिक प्रभामंडल से बाहर निकल कर यातना के प्रदेश में पहुँचने का संकेत है। उनकी ग्लासटैंक में हाँफती सोन मछली भी अपनी जिजीविषा में यातना ग्रस्त है। अज्ञेय अपने अंतिम संग्रह 'ऐसा कोई घर आपने देखा हैं' में 'आ रही मेरे दिवस की सांध्य बेला' (निराला) की तरह कहने लगते हैं - 'घिर रहा है साँझ / हो रहा अब समय / घर करले उदासी / तोल अपने पंख, सारस दूर के / इस देश में तू है प्रवासी।' 'साँझ के सारस' - उदासी की कविता है, 'यह अवसाद का लक्ष पल / निकल यहाँ से सारस अकेले।'
70 के दशक में आधुनिकीकरण अपने निर्मम रूप में था। आधुनिक जीवन में एक से बढ़कर एक उपभोक्ता वस्तुएँ आ रही थीं। लोग मानो एक जगमग जहाज पर सवार हो। व्यवस्था हृदयहीन थी। हम 'कितनी नावों में कितनी बार' (1966) में आधुनिक मनुष्य के अकेलेपन का निर्मम रूप पाते हैं - 'कितनी बार कितने जगमग जहाज / मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर / किन पराएदेशों की बेदर्द हवाओं में / जहाँ नंगे अंधेरों को / और भी उघाड़ता रहता है / एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश / जिसमें कोई प्रभामंडल नहीं बनता।' नव-औपनिवेशिक आधुनिकता का प्रकाश बड़ा नग्न, तीखा और निर्मम था। वह नंगे अंधेरों को और गहरा करता था। जगमग आधुनिकीकरण मनुष्य का आत्मपरायापन बढ़ा रहा था। इस से टकराने के रोमांटिक साहस का पुराना जमाना बीत गया था। अब आदमी खिन्न, विकल और संत्रस्त था।
अज्ञेय को 'पूर्व अज्ञेय' और 'उत्तर अज्ञेय' के रूप में बाँट कर कहा गया है कि बाद के अज्ञेय की कविताओं में साहसिकता, विविधता और खुलेपन का अभाव है। बाद के अज्ञेय के विकास को आधुनिक जीवन में छायी जा रही रिक्तता और तुच्छता के संदर्भ देखना होगा। वह प्रकृति की ओर अधिक से अधिक जाने लगते हैं, ताकि अपने विलगाव से लड़ सकें। अब पुराने रोमांटिक साहस की भावना कम रह गई थी। कवि की कला शोकात्मक हो गई थी। यह सिलसिला उनके अंतिम कविता संग्रह तक जारी है - 'घर मेरा कोई नहीं / घर मुझे चाहिए / घर के भीतर प्रकाश हो / इसकी मुझे चिंता नहीं / प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो / इसी की मुझे तलाश है/ ऐसा कोई घर आपने देखा है?' उनकी तलाश मरने से कुछ पूर्व, 1986 तक आते-आते उदास हो जाती है।
अज्ञेय ने काव्य भाषा में ही प्रयोग नहीं किए, अपने जीवन में भी किए। उन्होंने रहने के लिए हरे पेड़ पर एक घर बनवाया था।, जिसकी तस्वीर उनके कविता संग्रह 'ऐसा कोई घर आपने देखा है,के कवर पर छपी थी। वे इसमें रह नहीं पाए थे। ऐसा घर उनका एक स्वप्न था। ऐसा जीवन उनका एक स्वप्न था।
अज्ञेय का विश्वास है, प्रेम की मिट्टी से ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी मूल्यों का सृजन होता आया है। अज्ञेय के काव्य में प्रेम एक केंद्रीय तत्व है, 'वह मिट्टी ही है मूल्य / प्यार की मिट्टी / जिससे सरजन होता है / मूल्यों का / पीढ़ी दर पीढ़ी।' प्रेम अंततः एक सृजनशील आत्म विस्तार है। यह जीवन को सबसे महान संगीत में अपने को डुबो देना है, आज की तरह उपभोग की एक चीज भर नहीं है। यह सही है कि उनकी शुरू की कविताओं में स्त्री से प्रेम है। उनके ऐसे प्रेम में सबसे प्रधान चीज है स्त्री की गरिमा, उसके स्वत्व का आदर। अज्ञेय के लिए बाद में प्रेम एक निजी, एक गोपन, एक मौन मामला बन गया। यह जैसे सृष्टि की एकतानता और उसके ऐश्वर्य का अपने भीतर अनुभव करना हो,सृष्टि की संपूर्णता को अपने भीतर समोना। उनकी कविता 'कलगी बाजरे' में उपमानों की विशिष्टता ही नहीं है, भाषा के जादू का कमाल प्रदर्शन ही नहीं है। इसमें एक नए प्रेम और नए सौंदर्यबोध का आविष्कार है - ' मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगे : / तुम्हारे रूप के - तुम हो निकट हो इसी जादू के - / निजी किस सहज, गहरे बोध से किस प्यार से मैं कह रहा हूँ - / अगर मैं यह कहूँ - / बिछली घास हो तुम / लहलहाती हवा में कलगी छरहरी बाजरे की।' निश्चय ही रूप का जादू प्रेम के जादू से अलग नहीं है। यह रूप शहरातियों का उपभोक्ता सामान नहीं है। इसीलिए प्रेमिका एक ऐसी हरी चिकनी घास लगती है, जो 'सृष्टि के विस्तार का सौंदर्य का' प्रतीक है। अज्ञेय प्रेम को सृष्टि की एक विराट पृष्ठभूमि में देखते हैं, जहाँ अकेलापन और विश्व अंतःक्रियाशील हैं।
अज्ञेय एक तेजी से बदलते समय के साक्षी थे। प्रेम भी बदल रहा था। अज्ञेय का मन 'नदी की बाँक पर छाया' से बदलने लगा था। उनका प्रेम बाहर न फैल कर एक दूसरे तरह के विषाद से भरे मौन में रिसने लगा, 'नहीं, इस बार, मेरे मीत! / नहीं उमड़ेगी घाट / मैं नहीं गा सकूंगी गीत / इस बार, बस घुमड़ेगा प्यार। और चुप में रिस जाएगा।' जब हर अच्छी चीज पर सभ्यता की नकली चमक थी। बुद्ध के मंदिर पर सोने की परत थी, 'क्षण का अन्वेषी / मंदिर से घिर गया है। सोने से मढ़ गया है।' दूसरी तरफ, पुते गालों के ऊपर - नकली भंवो के नीचे आँखों से छला प्यार के छला वे थे या तनी आँखों से घृणा की चिंगारियाँ थीं। अज्ञेय करते हैं, 'नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं। वह एक निराशा की गिरफ्त में आते जा रहे थे।
मुश्किल यह है कि अज्ञेय नागर-रूचि की भाषा में लिखते हुए भी कभी किसी नागरिक से संवाद करना नहीं चाहते फ उन्हें आदिम जीवन व्यतीत करते संथाली जरूर याद आते हैं। वे चट्टान, बावरा सूरज, ऐतिहासिक खंडहर, कार्तिक के चाँद, नदी, सागर, रेत, सोनमछली, चिड़िया, फूल,वन और उन सारी चीजों से बात करते हैं, जहाँ सत्ता के रूप में नहीं हैं। कोई दूसरा कवि नागरिक समाज से इतना विमुख नहीं हुआ। उन्हें किसान जरूर याद आते हैं, 'उसके पैरों में बिवाइयाँ थीं। उसके खेत में / सूखे की फटन / और असकी आँखें / दोनों को जोड़ती थीं। ... मेरे हृदय का गलना / उसके किस काम का? / तब क्या वह मेरा पाखंड है? / यह मेरा प्रश्न / मेरे पैरों सी फाटन है। 'अज्ञेय का अपने को प्रश्नांकित करना दस ओर संकेत करता है कि वन-सा अपने में बंद होते हुए भी वह सभी ओर से खुले थे।
अज्ञेय के मन-प्राण प्रकृति में बसे थे। प्रकृति उनकी दूसरी दुनिया थी। इस पर आधुनिक -औद्योगिक सभ्यता का आक्रमण हो रहा था। अज्ञेय का प्रकृति-प्रेम जीवन के संपूर्ण पर्यावरण की सुरक्षा के लिए है। यह गहरी जिजीविषा से जन्मा है। पर्यावरण-रक्षा के इतने प्रचार के बावजूद औद्योगिक सभ्यता प्रकृति के प्रति क्रूर है। 'नंदा देवी' (1972) बादलों और नदियों के बीच खड़े नंदा शिखर के सौंदर्य पर मुग्ध होकर लिखी गई कविता भर नहीं है। अज्ञेय इसमें कटते पेड़ों, सूखे झरनों और धुएँ में आधुनिकीकरण का आततायी रूप भी देखते हैं और दुखी होते हैं - 'कल के लिए हमें / नाज का वायदा है -/ आज ठेकेदार को / हमारे पेड़ काट ले जाने दो। ' जंगल के पेड़ न जाने कहाँ -कहाँ खप रहे हैं। अज्ञेय की पर्यावरण - चिंता विकास के लिए जरूरी माने जा रहे ऊँचे आधुनिकीकरण पर प्रश्न उठाती है और एक विश्व-चिंता में साझा करती है।
नंदा
जल्दी ही -
बीस-तीस-पचास बरसों में
हम तुम्हारे नीचे एक मरू बिछा चुके होंगे
और तुम्हारे उस नदी-धौत सीढ़ी वाले मंदिर में
जला करेगा
एक मरु दीप!
उस युग के कवियों ने अपनी भागदौड़ की जिंदगी में महज एक सौंदर्या- त्मक स्पेस पैदा करने के लिए प्रकृति पर कविताएँ नहीं लिखीं। उन्हें जीवन से प्रेम था, इसलिए उन्होंने प्रकृति का सौंदर्य देखा। अज्ञेय के लिए प्रकृति उनके जीवन का आँगन है। यह उनके व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करती है और उनके प्रेम को भी। प्रकृति की गोद में जीवन एक आलोकमय संगीत बन जाता है। यह चीज उनके आखिरी कविता संग्रह 'ऐसा कोई घर आपने देखा है' की कविता 'आर्फेडस' में भी बनी हुई है।
ग्रीक मिथक पर आधारित 'आर्फेडस' अज्ञेय की एक कम चर्चित कविता है। यह टुकड़ों में एक लंबी कविता है, जिसमें प्रेम हमेशा मक्त रखनेवाला एक संगीतात्मक अनुभव बनकर आता है। यह असंभव नहीं कि इस कविता में आर्फेडस की जो पत्नी है, वह अज्ञेय की 'शशी' का प्रतिरूप है। आर्फेडस एक मिथकीय गायक है, जो अपनी पत्नी इयुरिडाइस को अपने संगीत के बल पर मृत्यु के पंजे से मुक्त करा लेता है। वह पीछे-पीछे आती है, पर आर्फेडस उसे खो देता है, क्योंकि पीछे मुड़कर न देखने की शर्त निभा नहीं पाता-उसका विश्वास चुक जाता है। वह कहते है,'मैं गाता रहूँ और बढ़ता जाऊँ /और मुड़कर न देखूँ कि यह विश्वास / मेरा बना रहे कि तुम पीछे-पीछे आ रही हो।' मनुष्य का प्रेम जीवन में विश्वास ही तो लाता है। इस विश्वास में ही सारा आलोक भरा है। मुक्तिबोध को 'अंधेरा' प्रिय था, जबकि अज्ञेय को 'आलोक', पर दोनों जिंदगी में विश्वास मजबूत करने के लिए कविता लिख रहे थे। आधुनिक सभ्यता में सबसे बड़ा संकट इसी विश्वास पर था, 'तुम भी मरोगे आर्फेडस, तुम भी मरोगे / पत्थर हो जाओगे / केवल संगीत बचेगा ... / संगीत प्रकाश का एक घंटा / जो बांधता है / जो मुक्त करता है।' अज्ञेय ने प्रेम का यह रूप दिखाया।
यहीं गाऊँ। गाता रहूँ
तुम
वहीं आओ। आती रहो।
धूप की थिगलियाँ। तितलियाँ। बसंत।
एक पाले का परदा। शिलित अंधकार।
अंधेरा संगीत। संगीत में आलोक की तड़पन।
प्रतीति।
उधर
पग पग टटोलता
काँपता प्रकाश। ललक। प्रीति।
हम अज्ञेय से साझा नहीं कर सकते, उन्हें थोड़ा समझ जरूर सकते हैं। वे समाज से जितने भी अलग होकर अपने अकेलेपन में बसे रहे हों, उनमें आधुनिक जीवन के संकुचित होते जाने का गहरा दर्द है। वे समाज से उतने अलग भी नहीं हैं। यह उनका 'मैं' है, यह बाहरी संसार के कठोर आक्रमणें से बड़ी मुश्किल से सुरक्षित 'व्यक्ति' है, जो प्रकृति, संगीत और प्रेम में अपने होने का अहसास करता है। वह इस अहसास को मिटने देना नहीं चाहता। जीवन का आलोक छुआ अपनापन ही अज्ञेय का आत्मान्वेषण है। वह अपने 'मैं' से बार-बार टकरा कर निरंतर इसे उदात्त बनाते हैं। ताकि व्यक्ति बचा रहे। व्यक्ति के मिटने पर झुंड ही बन सकता है, समाज नहीं।